प्रोफेसर राहुल सिंह की कलम से
देश के 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में जारी एसआईआर प्रक्रिया जनता से लेकर बीएलओ तक के गले की फांस बन गयी है। शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब किसी न किसी बीएलओ के मरने, खुदकुशी करने या फिर निलंबन की सूचना न आ रही हो। वैसे भी सामान्य परिस्थितियों में तीन से चार महीने में होने वाले किसी काम को अगर महज चंद दिनों के भीतर निपटाने की कोशिश की जाएगी तो निश्चित तौर पर इसी तरह के नतीजे आएंगे। इस प्रक्रिया में काम का जो दबाव उस शख्स पर पड़ेगा उसकी महज कल्पना ही की जा सकती है। ऊपर से अगर कर्मचारी उसके अभ्यस्त न हों और उसके लिए उन्हें जरूरी प्रशिक्षण भी न मिला हो तब स्थितियां और भयावह हो सकती हैं। यही कुछ हो रहा है बीएलओ के साथ।
एक तरफ काम का दबाव दूसरी तरफ प्रशासनिक उच्चाधिकारियों का डंडा और उससे भी आगे बढ़कर नौकरी जाने के खतरे ने उनके दिमाग को चूल्हे पर चढ़े प्रेसर कूकर में बदल दिया है। दबाव का संतुलन बिगड़ने का मतलब है कूकर का फटना। यही सब कुछ खुदकुशी और मौतों के तौर पर सामने आ रहा है। अभी तक 20 से ज्यादा बीएलओज की मौत हो चुकी है। ढेर सारे तो अपनी नौकरियों से इस्तीफा दे दे रहे हैं। एक समाचार तो यहीं नोएडा से है जहां बीएलओ पिंकी ने दबाव के चलते अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। लेकिन चुनाव आयोग है कि इसका संज्ञान भी लेना नहीं चाहता है।
वह यह मानने के लिए भी तैयार नहीं है कि कहीं कोई चीज गलत हो रही है। यहां तक कि एसआईआर के मामले पर इस बीच सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई लेकिन वहां भी इसका़ कोई जिक्र नहीं हुआ। अब कोई पूछ सकता है कि एक लोकतांत्रिक और सभ्य समाज में जहां आधुनिक संस्थाओं की निगरानी और संरक्षण में सारी चीजें संचालित हो रही हैं वहां इस तरह की घटनाओं को कैसे नजरंदाज किया जा सकता है? यह एक बड़ा सवाल है इसका उत्तर आगे जानेंगे। लेकिन आइये उससे पहले एसआईआर के पीछे के पूरे मकसद को समझ लेते हैं।
वैसे तो एसआईआर वोटर लिस्ट की खामियों को दूर करने और उसमें अवैध वोटरों को छांटने तथा नये वोटरों को शामिल करने के नारे के साथ चलाया जा रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि उसका यह मूल मकसद कतई नहीं है। एसआईआर शुद्ध रूप से एक छंटनी का कार्यक्रम है। जहां तक रही मतदाताओं को शामिल करने की बात तो उसमें भी पिक एंड चूज की व्यवस्था है। यह एक ऐसा अभियान है जो सत्तारूढ़ पार्टी के निहित स्वार्थों को पूरा करने के उद्देश्य से चलाया जा रहा है। इसीलिए इसे पूर्व निर्धारित और टारगेटेड तरीके से संचालित किया जा रहा है।
अनायास नहीं बीच में जब इतना बड़ा संकट आ रहा है, बीएलओ की मौतें और खुदकुशियां हो रही हैं तब भी चुनाव आयोग टस से मस होने के लिए तैयार नहीं है। सत्तारूढ़ बीजेपी के किसी नेता ने संवेदना के दो शब्द भी बोलने की जहमत नहीं उठाई। यह कोई मामूली घटना नहीं है। वरना क्या चुनाव आयोग के पास समय की कमी थी? बिहार चुनाव से पहले जब आप वहां एसआईआर करा रहे थे तो उसी समय इन सारे राज्यों में भी एसआईआर शुरू हो सकता था और इस तरह से इन बाकी 13 राज्यों में एसआईआर के लिए पूरा समय मिल जाता।
लेकिन आपने इसलिए नहीं किया क्योंकि इससे आपका उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। क्योंकि आप को ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं की छटनी करनी है। और उनकी जगह ऐसे वोटरों को भरना है जो आपकी अपनी योजना में फिट बैठते हों। ऐसा तभी हो सकता है जब कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा काम करने का दबाव पैदा किया जा सके। जिससे बड़ी संख्या में वोटरों के छूटने की गारंटी हो। इस कड़ी में आपको उन वोटरों को बाहर करने का मौका मिल जाएगा जो परंपरागत तौर पर बीजेपी के लिए वोट नहीं करते हैं। अनायास नहीं इसी दौरान एक बीएलओ के रिश्तेदार ने बताया कि उनके भाई के ऊपर उच्च अफसरों द्वारा पिछड़े समुदाय के वोटरों को छांटने का दबाव बनाया जा रहा था। यही नहीं बिहार में हुए एसआईआर में दलितों, अल्पसंख्यकों और ऐसे तबकों के ज्यादा से ज्यादा वोटरों के छांटे जाने की खबरें आयी थीं जो बीजेपी के आमतौर पर वोटर नहीं माने जाते हैं।
दरअसल एसआईआर पूरे चुनाव, लोकतंत्र और चुनाव आयोग के वजूद के ही खिलाफ है। चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी है कि वह देश के सारे के सारे मतदाताओं को मतदाता सूची में शामिल करे। उसका प्राथमिक लक्ष्य यह होना चाहिए कि देश में कोई एक भी मतदाता ऐसा नहीं होना चाहिए जो मतदाता सूची से बाहर हो।
लोकतंत्र में चुनाव की केंद्रीय भूमिका होती है और उसमें सभी मतदाताओं को शामिल कराने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर होती है। लेकिन अगर इसकी जगह चुनाव आयोग का मकसद अधिक से अधिक मतदाताओं को वोटर लिस्ट से छांटना हो जाए तो फिर उस देश और उसके लोकतंत्र को कोई नहीं बचा सकता है। और कोई चुनाव आयोग अगर ऐसा कर रहा है तो इसका मतलब है कि वह अपने देश, लोकतंत्र और जनता के लिए नहीं बल्कि किसी और के निहित स्वार्थ के लिए काम कर रहा है।
अपने पूरे लक्ष्यों और मकसद के विपरीत काम करने वाले चुनाव आयोग से भला फिर क्या ही उम्मीद की जा सकती है। ऊपर से अगर वन नेशन, वन इलेक्शन का विधेयक संसद से पास हो जाता है तो फिर यह कोढ़ में खाज ही साबित होगा। अभी तक चुनावों में विपक्ष के लिए जो रही सही उम्मीदें थीं वह भी धूलधसरित हो जाएंगी। इसका मतलब होगा कि पिट्ठू चुनाव आयोग के दम पर सत्ता पर बीजेपी-आरएसएस का स्थाई कब्जा। लोकतंत्र के रास्ते तानाशाही के इस सफर पर बीजेपी और संघ बहुत आगे निकल गए हैं। और चूंकि लोकतंत्र और तानाशाही दोनों एक साथ नहीं चल सकते हैं इसलिए एक का मरना तय है। और अभी की स्थिति में तो लोकतंत्र ही मरता हुआ दिख रहा है। वैसे भी यह हत्या उसकी टुकड़ों-टुकड़ों में की जा रही है।
अब आते हैं लोकतंत्र के तहत चलने वाली बर्बरता की बात पर। आपने क्या कभी यह सोचा कि बीजेपी के किसी भी फैसले में हिंसा, हत्या, खून क्यों जुड़ जाता है। बीजेपी का कोई भी कार्यक्रम बगैर इसके संपन्न ही नहीं होता है। नोटबंदी की गयी तो सैकड़ों ने अपनी जान गवां दी। लॉकडाउन हुआ तो इसी तरह की स्थितियों का लोगों को सामना करना पड़ा। जीएसटी की मार से खुदकुशी करने वाले व्यापारियों की शायद ही देश में कोई गिनती हो पायी हो। और अगर ऐसा कुछ नहीं हो रहा है तो शांतिकाल में भी मॉब लिंचिंग से लेकर बुल्डोजर के जरिये लोगों को मौत के घाट उतारने वाले खुदकुशी के लिए मजबूर करने नियमित अभियान चलता ही रहता है।
अगर कुछ बचा तो फिर एनकाउंटर के जरिये स्थाई हिंसा का माहौल बनाए रखने की जिम्मेदारी पुलिस को दे दी गयी है। अब कोई पूछ सकता है कि ऐसा क्यों है? दरअसल बीजेपी और संघ एक हिंसक समाज चाहते हैं क्योंकि उन्हें पूरे समाज को एक स्थाई युद्ध में झोंकना है। और इसके लिए जरूरी है कि पूरा समाज मानसिक तौर पर तैयार रहे। इन सारे कार्यक्रमों और योजनाओं के जरिये देश में इसी तरह का एक इको सिस्टम तैयार किया जा रहा है। जिसमें यह सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है कि आने वाले दिनों होने वाली बड़ी से बड़ी हिंसा को बर्दाश्त करने की जनता में क्षमता हो। या दूसरे शब्दों में कहें तो एक बड़े गृहयुद्ध की तैयारी है।
अनायास नहीं संघ हथियारों की पूजा करता है। वह अपनी शाखाओं में स्वयंसेवकों को लड़ने की ट्रेनिंग देता है। और कई बार कई जगहों पर घरों में हथियारों तक की सप्लाई की खबरें आयी हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि पहले ही उसने हिंदुओं का सैन्यीकरण और सैनिकों का हिंदूकरण का नारा दे रखा है। अगर किसी को लगता है कि बीजेपी सरकार की अग्निवीर योजना हवा हवाई है तो उसे अपनी सोच पर फिर से विचार करना चाहिए।
दरअसल अग्निवीर के जरिये संघ-बीजेपी पूरे समाज और खास कर हिंदू समाज के एक बड़े हिस्से को सैन्य प्रशिक्षण देना चाहते हैं। क्योंकि आने वाले दिनों में समाज के भीतर अगर कोई बड़ा युद्ध छिड़ा तो फिर यही सैनिक उसके लिए पहली पंक्ति के योद्धा होंगे। इसलिए एक शांतिपूर्ण समाज के हिंसक समाज में बदलने और फिर उसके हिंदू तालीबान बनने के जो खतरे हैं उसको अगर समय रहते समझा नहीं गया तो इस देश का भविष्य बेहद अंधकारमय है।

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