यह मानना गलत है कि भारत के संविधान में धर्म निरपेक्षता (पंथ निरपेक्षता) का सिद्धांत बयालीसवें संविधान संशोधन के माध्यम से वर्ष 1976-77 में आया. यह तो शुरू से ही भारत के संविधान की आत्मा का एक मूलभूत सिद्धांत रहा है. संविधान सभा में कई मौकों पर यह स्पष्ट किया गया था कि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश होगा. अब हम उस स्थिति में आ गए हैं, जब हम सबको यह संदेश देना होगा कि भारत में सभी लोग किसी एक ही धर्म को मानने वाले हों. भारत की शान तो विविधता में ही है.
हम एक ऐसे समय में हैं, जब कई लोग धर्म निरपेक्षता और सहिष्णुता को नकारात्मक सोच के रूप में प्रस्तुत करने लगे हैं. यह मानना कि भारत में सभी धर्मों और संप्रदायों के लोगों का स्थान समान है, कई लोगों को व्यवस्था विरोधी विचार लगने लगा है. यह समझ पूरी तरह से बदल चुकी है कि भारत के हर व्यक्ति को स्वास्थ्य, रोजगार, शिक्षा और अच्छा वातावरण मिलने से ही भारत का विकास होगा. भारत एक बेहतर राष्ट्र बन पाएगा. बदलाव यह है कि शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ऊर्जा और संसाधनों का निवेश कम कर दिया गया है. भारत के संविधान ने ऐसी कोई कल्पना भी नहीं की थी. भारत का संविधान भारत में सभी धर्मों और विश्वासों को समान सम्मान देता है, लेकिन चंद लोग ऐसा नहीं चाहते हैं. वे चाहते हैं कि भारत में केवल एक ही धर्म, एक ही भाषा, एक ही विश्वास, एक ही विचार को सम्मान और मान्यता मिले.
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अकसर यह प्रचार किया जाता है कि भारत के मूल संविधान (जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था) में तो धर्म निरपेक्षता का उल्लेख ही नहीं था. और इसे बाद में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के जरिये जोड़ा गया. और पंथनिरपेक्षता का भाव भारत में 3 जनवरी 1977 से ही प्रभावी माना गया. दूसरी बहस यह भी है कि धर्म निरपेक्षता और पंथ निरपेक्षता में फर्क है और तर्क दिया जाता है कि भारत पंथ निरपेक्ष हो सकता है, लेकिन धर्म निरपेक्ष नहीं. अगर धर्मों का मूलभूत मानवीय मूल्यों का एक समुच्चय माना जाए तो, यह भी स्वीकार करना होगा कि भारत के संविधान की उद्देशिका में ही उन मानवीय मूल्यों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जा चुका है. लेकिन अगर धर्म का मतलब खास तरह के प्रतीकों को मानना, ख़ास तरह के प्रार्थना के तरीकों और सांस्कृतिक व्यवहार को अपनाना है, तो फिर जरूरी है कि भारत में धर्म और पंथ निरपेक्षता को समान अर्थों में ही स्वीकार किया जाए.
यूं तो कहा यही जाता है कि धर्म वास्तव में जीवन शैली का पर्याय है, लेकिन भारत में आज राजनीतिक स्वार्थों का इतना पतन हो चुका है कि समाज खुद अपने धर्म का पालन नहीं कर पा रहा है और उसने धर्म का झंडा राजनीतिक दलों और सरकारों को सौंप दिया है, इसीलिए भारत में धर्म अब हिंसा, टकराव, आंतरिक उपनिवेशवाद और भय का पर्याय है. यह मानना गलत है कि भारत के संविधान में धर्म निरपेक्षता (पंथ निरपेक्षता) का सिद्धांत बयालीसवें संविधान संशोधन के माध्यम से वर्ष 1976-77 में आया. यह तो शुरू से ही भारत के संविधान की आत्मा का एक मूलभूत सिद्धांत रहा है. संविधान सभा में कई मौकों पर (मूलभूत अधिकारों और उद्देश्यिका और भारत के नाम के निर्धारण की बहस के समय) यह स्पष्ट किया गया था कि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश होगा. संविधान के अनुच्छेद 25 में (संविधान के मसौदे में यह अनुच्छेद 19 के रूप में था) कहा गया कि सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक़ होगा.
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जब अनुच्छेद 19 पर बहस हो रही थी, तब तजम्मुल हुसैन ने कहा था कि ‘धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने… के स्थान पर ‘धर्म को निजी तौर पर मानने’ का समान हक होगा, कर दिया जाए. उन्होंने कहा आपका अपने धर्म में विश्वास है, आप मेरे धर्म में हस्तक्षेप क्यों करें और मैं आपके धर्म में हस्तक्षेप क्यों करूं? धर्म केवल मोक्ष-प्राप्ति का साधन है. मैं अपनी ही विचारधारा और अपने धर्म द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकता हूं और आप अपने तरीके से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, तो मैं आपसे मेरे मार्ग द्वारा मुक्ति प्राप्त करने के लिए क्यों कहूं तथा आप मुझे अपने मार्ग के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के लिए क्यों कहें? इस सिद्धांत के अनुसार धर्म का प्रचार करने की क्या जरूरत है? उन्होंने तो यह भी प्रस्ताव रखा था कि “कोई भी व्यक्ति ऐसा दृश्य चिह्न अथवा निशान अथवा नाम नहीं रखेगा और न ही कोई ऐसे वस्त्र पहनेगा, जिससे उसके धर्म को पहचाना जा सके.’ हालांकि इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया गया.
प्रोफेसर केटी शाह का सुझाव था कि धर्म का प्रचार हो, लेकिन किसी विद्यालय, महाविद्यालय, अस्पताल, आश्रम, संस्था में प्रभाव संपन्न व्यक्तियों से धर्म परिवर्तन कराने के उद्देश्य से किसी धर्म के पक्ष में प्रचार न हो. एचवी कामत का प्रस्ताव था कि इस अनुच्छेद में एक हिस्सा और जोड़ा जाए – ‘राज्य किसी धर्म विशेष को न स्थापित करेगा, न उसके पक्ष में कोई व्यवस्था करेगा और न उसके प्रश्रय देगा; किंतु किसी भी बात से संघ के नागरिकों को आध्यात्मिक शिक्षा या उपदेश प्रदान करने पर राज्य के लिए कोई रुकावट न होगी.’
पंडित लक्ष्मी नारायण मैत्र ने भारत के असाम्प्रदायिक होने की व्याख्या की. उन्होंने कहा, ‘असांप्रदायिक राज्य से यह मतलब है कि धर्म या संप्रदाय के आधार पर राज्य किसी के भी विरुद्ध, चाहे वह जिस धर्म को मानता हो, कोई भेदभाव न बरतेगा. राज्य की ओर से किसी भी खास धर्म को कोई प्रश्रय न मिलेगा. अन्य धर्मों के मुकाबले में या उनकी उपेक्षा करके, राज्य किसी ख़ास धर्म को स्थापित न करेगा, न प्रश्रय देगा, न सहायता देगा. राज्य में किसी भी नागरिक के पक्ष या विरोध में, इस आधार पर कि वह किसी विशेष धर्म को मानता है, न तो कोई रियायत दी जाएगी और न कोई भेदभाव बरता जाएगा. राज्य संबंधी कामों में कभी इस बात पर कोई भी ध्यान नहीं दिया जाएगा कि नागरिक किसी धर्म विशेष को मानते हैं या नहीं. मेरी समझ से असाम्प्रदायिक राज्य का मतलब यही है.’
6 दिसंबर 1948 को धर्म को मानने का अधिकार देने वाले अनुच्छेदों को संविधान में शामिल किया गया था. भारत के संविधान के मूल अधिकारों में ऐसे दो अनुच्छेद बहुत महत्वपूर्ण हैं. अनुच्छेद 25 – ‘लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के निर्बाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा.’अनुच्छेद 27 – ‘किसी भी व्यक्ति को ऐसे करों के संदाय (भुगतान) के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा, जिनके आगम (परिणाम) किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि या पोषण में व्यय करने के लिए विनिर्दिष्ट रूप से विनियोजित जिए जाए हैं.’
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यानी सरकारें किसी धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए भारत के लोगों के ‘कर’ वसूल नहीं कर सकती है. समग्रता में यह माना गया था कि हम जिस तरह की राज्य व्यवस्था बनाना चाहते हैं, उसमें स्वतंत्र भारत की राज्य व्यवस्था के अंग यानी न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका किसी ‘खास धर्म या संप्रदाय’ के प्रति न तो विशेष अनुराग रखेंगे और न ही कोई द्वेष रखेंगे. इसका मतलब है कि इन व्यवस्थाओं के प्रतिनिधि धर्म या संप्रदाय की रीतियों का ऐसे व्यवहार नहीं करेंगे, जिससे देश में यह संदेश जाए कि कोई सरकार तो किसी धर्म के पक्ष में है. संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को सार्वजनिक रूप से धर्म और संप्रदाय से सम्बंधित व्यवहारों का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए और न ही राज्य के कार्यों और क्रियाकलापों में धार्मिक अनुष्ठान शामिल करना चाहिए.
अगर किसी सरकार के अधिकांश लोग लोग हिंदू धर्म में विश्वास रखते हैं और वे अपने शासनकाल में हिन्दुत्ववादी अनुष्ठानों को सरकार के कामकाज में शामिल करते हैं, तो फिर यह भी संभव होगा कि जब कोई ऐसी व्यवस्था आये, जिसमें प्रभावशाली लोग इस्लाम या ईसाई धर्म को मानने वाले होंगे, तब वे पूरी व्यवस्था को इस्लामी या ईसाई धरम के व्यवहारों के मुताबिक संचालित करने की पहल करेंगे. इन दोनों ही स्थितियों में देश के आम लोगों को धर्म के वास्तविक स्वरुप में अपनाने का मौका नहीं मिलेगा क्योंकि सत्ताएं धर्म का अपनी स्वार्थों और हितों के लिए इस्तेमाल करने लगेंगी. थोड़ा सा भी गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि भारतीय संघ यानी भारत सरकार के मंत्री और प्रधानमंत्री जो शपथ लेते हैं, उसमें भी यही संदेश आता है. उनकी शपथ कहती है कि
‘मैं, ………, ईश्वर की शपथ लेता हूं/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा, मैं ….. संघ के मंत्री/प्रधानमंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करूंगा.’
‘मैं, ……….. ईश्वर की शपथ लेता हूं/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूं कि जो विषय संघ के मंत्री/प्रधानमंत्री के रूप में मेरे विचार के लिए लाया जायेगा अथवा मुझे ज्ञात होगा उसे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को, तब के सिवाय जबकि ऐसे मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन के लिए ऐसा करना अपेक्षित हो, मैं प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संसूचित या प्रकट नहीं करूंगा.’
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प्रश्न यह है कि इस शपथ का मतलब क्या है? भारत में वायदे और शपथ के मायने क्या होते हैं? क्या इस शपथ के दो अर्थ हो सकते हैं?
वास्तव में अब हम उस स्थिति में आ गए हैं, जब हम सबको, यानी भारत के लोगों को स्वयं यह संदेश देना होगा कि हम ऐसा नहीं सोचते हैं कि भारत में सभी लोग किसी एक ही धर्म को मानने वाले हों. भारत की शान तो विविधता में ही है. भारत की विशालता भी इसी विचार में है कि इस देश में हर विचार, हर धर्म और हर पंथ के लोग भारतीय हैं. भारतीय होने के लिए किसी खास धर्म या महजब का होने की जरूरत नहीं है. अगर जरूरत है तो सबके द्वारा बंधुता, न्याय, समता, स्वतंत्रता, करुणा और गरिमा के मूल्यों को अपनाए जाने की.
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